त्रैलोक्य विजय प्रत्यंगिरा कवच
त्रैलोक्य विजय प्रत्यंगिरा कवच
किसी भी प्रकार 'घबराना नहीं चाहिए और ग्यारह बार, २१ बार अथवा ५१ बार इस.विशेष ध्यान का. जप करना चाहिए, जप की पूर्णता होते-होंते ऐसा आभास होता है कि विशेष शक्ति प्रवाहित हो राई है, यह अनुष्ठान और यंत्र सिद्ध हो, जाने पर पूरे जीवन भर इसका प्रयोग स्वयं पर, अपने प्ररिवार के. सदस्यों आदि किसी के लिये भी किया जा सकता है।
इस विशिष्ट साधना को सिद्ध करने के पश्चात् यवि शत्रु बाधा अत्यन्त गंभीर हो तो थोड़ी सी अज्नि किसी पात्र में स्थापित कर पीलीं सरसों को आहुति इस विशिष्ट कबच का जप करते हुए देनी चाहिए, .अम्नि में सरसों की आहुति देते समय साधक को “शत्रु झय' उच्चारण दूसरी ओर मुंह करके करना चाहिए, ऐसा करने से शत्रु का प्रभाव समाप्त हो जाता है, यदि किसी को भूत-प्रेत उपद्रव हो तो तांबे के पात्र में थोड़ा सा जल ले कर इस कवच का एक़ बार उच्वारण कर वह जल उस पर छिड़क दें, तो तुरन्त भूत-प्रेत उपद्रव से शान्ति. मिल जाती है, यदि किसी को अपने अनुकूल बनाना हो तो उस व्यक्ति का ध्यान कर हाथ मैं जल लें, तथा इस मंत्र का स्पारहे
बार जप करें, प्रत्येक मंत्र के जप के समय उस व्यक्ति का नाम ले कर प्रत्यंगिरा मंत्र जप करें; वशीकरण, प्रयोग हेतु: काले तिल की आहुति दें।
यदि एक बार के प्रयोग में सफलता न मिले ती दूसरी, तीसरी या चौथी बार भी यह प्रयोग:सम्पन्न किया जा सकता है| इस साधना की सिद्धि पूर्ण रूप से प्राप्त करने हेतु नियमित| रूप से इसके मूंल मंत्र का जप छोटे मनकों वाली रूद्वाक्ष माला| से या काले मनकों वाली हंकीक माला से करना आवश्यक है,
इस साधना हेतु जो माला प्रयोग में ली जाय वह माला किसी दूसरी साधना के संबंध में प्रयोग में ली जा सकती है,
मूल मंत्र निम्न प्रकार से है .उच्चकोटि के तांत्रिक ग्रन्थों में इस विशिष्ट कवच के सम्बन्ध में अत्यन्त प्रशंसा की गयी है, प्रतिदिन प्रातः प्रत्यंगिरा स्तोत्र
का जप नियमित रूप से करने से मानसिक श्रेष्ठता प्राप्त होती है, व्यक्तित्व मैं विशिष्टता प्राप्त होने के साथ ही शत्रु हानि का 'मय नहीं रहता है, और निरन्तर एक विशिष्ट शक्ति शरीर में प्रवाहित होती रहती है।प्राचीन ग्रन्थों से तथा अपने गुरु से प्राप्त इस प्रत्यंगिरा स्तोत्र को अपने मूल रूप में साधकों के समक्ष दे रहा हूं ।
त्रैलोक्य विजय प्रत्यंगिरा कवच (मूल)
यदि इस कवच का पाठ करता हुआ जो साधक एक पुरश्चरण सम्पन्न कर लेता है (इस कबच का एक हजार.बार पाठ करने से एक पुरश्वरण सम्पन्न होता है), तो प्रत्यगिरा उसके वशीभूत होकर मनौवांछित फल प्रदान करती है, पुरश्चरण सम्पन्न इस कवच को भोज पत्र पर लिख कर और उसे ताबीज में भर कर अपने गले या दाहिनी भुजा पर बांधने से मनोनुकूल फल प्राप्त होता है।