रहस्यों की दुनिया में आपका स्वागत है।यहाँ आपको ऐसे ऐसे रहष्यो के बारे में जानने को मिलेगा जिसको आप ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा।
उधार श्रद्धा दो कौड़ी की है----दो कौड़ी के गुरु ही श्रद्धा, विश्वास की बाते करते हे .जो गुरु श्रद्धा, विश्वास का जितना ज्यादा ढोल पिटेगा उतना कमजोर गुरु समझना ,वो जाल बिछा रहा हे ताकि तुम फस जाओ.
दीक्षा देकर बांधनेवाले गुरु से सावधान:
गुरु कोई भी नहीं है। इसलिए जिस दीक्षा में कोई आदमी गुरु बन जाता हो, उस दीक्षा से सावधान होना जरूरी है। और जिस दीक्षा में परमात्मा ही सीधा, इमीजिएट और डायरेक्ट संबंध में आता हो, वह दीक्षा बड़ी अनूठी है।
और ध्यान रहे कि इस दूसरी दीक्षा में न तो किसी को घर छोड्कर भागने की जरूरत है; न इस दूसरी दीक्षा में किसी को हिंदू मुसलमान, ईसाई होने की जरूरत है; न इस दूसरी दीक्षा में किसी से बंधने की कोई जरूरत है। इसमें तुम अपनी परिपूर्ण स्वतंत्रता में जैसे हो, जहां हो, वैसे ही रह सकते हो, सिर्फ भीतर तुम्हारी बदलाहट शुरू हो जाएगी। लेकिन वह जो पहली झूठी दीक्षा है, उसमें तुम किसी धर्म से बंधोगे—हिंदू बनोगे, मुसलमान बनोगे, ईसाई बनोगे; किसी संप्रदाय के हिस्से बनोगे, कोई पंथ, कोई मान्यता, कोई डाग्मेटिज्म तुम्हें पकड़ेगा; कोई आदमी, कोई गुरु, वे सब तुम्हें पकड़ लेंगे, वे तुम्हारी स्वतंत्रता की हत्या कर देंगे। जो दीक्षा स्वतंत्रता न लाती हो, वह दीक्षा नहीं है; जो दीक्षा परम स्वतंत्रता लाती हो, वही दीक्षा है।
श्रद्धा, विश्वास और गुरु घंटालो के मायाजाल को समझने से पहले गौतम बुद्ध क्या कहते पहले उसे समझते हे .
बुद्ध धर्म के पहले वैज्ञानिक हैं। उनके साथ श्रद्धा और आस्था की जरूरत नहीं है। उनके साथ तो समझ पर्याप्त है। अगर तुम समझने को राजी हो, तो तुम बुद्ध की नौका में सवार हो जाओगे। अगर श्रद्धा भी आएगी, तो समझ की छाया होगी। लेकिन समझ के पहले श्रद्धा की मांग बुद्ध की नहीं है। बुद्ध यह नहीं कहते कि जो मैं कहता हूं, भरोसा कर लो। बुद्ध कहते हैं, सोचो, विचारो, विश्लेषण करो; खोजो, पाओ अपने अनुभव से, तो भरोसा कर लेना।
दुनिया के सारे धर्मों ने भरोसे को पहले रखा है, सिर्फ बुद्ध को छोड़कर। दुनिया के सारे धर्मों में श्रद्धा प्राथमिक है, फिर ही कदम उठेगा। बुद्ध ने कहा, अनुभव प्राथमिक है, श्रद्धा आनुशांगिक है। अनुभव होगा, तो श्रद्धा होगी। अनुभव होगा, तो आस्था होगी।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, आस्था की कोई जरूरत नहीं है; अनुभव के साथ अपने से आ जाएगी, तुम्हें लानी नहीं है। और तुम्हारी आयी हुई आस्था का मूल्य भी क्या हो सकता है? तुम्हारी लायी हुई आस्था का मूल्य भी क्या हो सकता है? तुम्हारी लायी आस्था के पीछे भी छिपे होंगे तुम्हारे संदेह।
तुम आरोपित भी कर लोगे विश्वास को, तो भी विश्वास के पीछे अविश्वास खड़ा होगा। तुम कितनी ही दृढ़ता से भरोसा करना चाहो, लेकिन तुम्हारी दृढ़ता कंपती रहेगी और तुम जानते रहोगे कि जो तुम्हारे अनुभव में नहीं उतरा है, उसे तुम चाहो भी तो कैसे मान सकते हो? मान भी लो, तो भी कैसे मान सकते हो? तुम्हारा ईश्वर कोरा शब्दजाल होगा, जब तक अनुभव की किरण न उतरी हो। तुम्हारे मोक्ष की धारणा मात्र शाब्दिक होगी, जब तक मुक्ति का थोड़ा स्वाद तुम्हें न लगा हो।
बुद्ध ने कहा: मुझ पर भरोसा मत करना। मैं जो कहता हूं, उस पर इसलिए भरोसा मत करना कि मैं कहता हूं। सोचना, विचारना, जीना। तुम्हारे अनुभव की कसौटी पर सही हो जाए, तो ही सही है। मेरे कहने से क्या सही होगा!
बुद्ध के अंतिम वचन हैं: अप्प दीपो भव। अपने दीए खुद बनना। और तुम्हारी रोशनी में तुम्हें जो दिखाई पड़ेगा, फिर तुम करोगे भी क्या-आस्था न करोगे तो करोगे क्या? आस्था सहज होगी। उसकी बात ही उठानी व्यर्थ है।
बुद्ध का धर्म विश्लेषण का धर्म है। लेकिन विश्लेषण से शुरू होता है, समाप्त नहीं होता वहां। समाप्त तो परम संश्लेषण पर होता है। बुद्ध का धर्म संदेह का धर्म है। लेकिन संदेह से यात्रा शुरू होती है, समाप्त नहीं होती। समाप्त तो परम श्रद्धा पर होती है।
इसलिए बुद्ध को समझने में बड़ी भूल हुई। क्योंकि बुद्ध संदेह की भाषा बोलते हैं। तो लोगों ने समझा, यह संदेहवादी है। हिंदू तक न समझ पाए, जो जमीन पर सबसे ज्यादा पुरानी कौम है। बुद्ध निश्चित ही बड़े अनूठे रहे होंगे, तभी तो हिंदू तक समझने से चूक गए। हिंदुओं तक को यह आदमी खतरनाक लगा, घबड़ाने वाला लगा। हिंदुओं को भी लगा कि यह तो सारे आधार गिरा देगा धर्म के। और यही आदमी है, जिसने धर्म के आधार पहली दफा ढंग से रखे।
श्रद्धा पर भी कोई आधार रखा जा सकता है! अनुभव पर ही आधार रखा जा सकता है। अनुभव की छाया की तरह श्रद्धा उत्पन्न होती है। श्रद्धा अनुभव की सुगंध है। और अनुभव के बिना श्रद्धा अंधी है। और जिस श्रद्धा के पास आंख न हों, उससे तुम सत्य तक पहुंच पाओगे?
बुद्ध ने बड़ा दुस्साहस किया। बुद्ध जैसे व्यक्ति पर भरोसा करना एकदम सुगम होता है। उसके उठने-बैठने में प्रमाणिकता होती है। उसके शब्द-शब्द में वजन होता है। उसके होने का पूरा ढंग स्वयंसिद्ध होता है। उस पर श्रद्धा आसान हो जाती है। लेकिन बुद्ध ने कहा, तुम मुझे अपनी बैसाखी मत बनाना। तुम अगर लंगड़े हो, और मेरी बैसाखी के सहारे चल लिए-कितनी दूर चलोगे? मंजिल तक न पहुंच पाओगे। आज मैं साथ हूं, कल मैं साथ न रहूंगा, फिर तुम्हें अपने ही पैरों पर चलना है। मेरी रोशनी से मत चलना, क्योंकि थोड़ी देर को संग-साथ हो गया है अंधेरे जंगल में। तुम मेरी रोशनी में थोड़ी देर रोशन हो लोगे; फिर हमारे रास्ते अलग हो जाएंगे। मेरी रोशनी मेरे साथ होगी, तुम्हारा अंधेरा तुम्हारे साथ होगा। अपनी रोशनी पैदा करो। अप्प दीपो भव!
यह बुद्ध का धम्मपद, कैसे वह रोशनी पैदा हो सकती है अनुभव की, उसका विश्लेषण है। श्रद्धा की कोई मांग नहीं है। श्रद्धा की कोई आवश्यकता भी नहीं है। इसलिए बुद्ध को लोगों ने नास्तिक कहा। क्योंकि बुद्ध ने यह भी नहीं कहा कि तुम परमात्मा पर श्रद्धा करो।
तुम कैसे करोगे श्रद्धा? तुम्हें पता होता तो तुम श्रद्धा करते ही। तुम्हें पता नहीं है। इस अज्ञान में तुम कैसे श्रद्धा करोगे? और अज्ञान में तुम जो श्रद्धा बांध भी लोगे, वह तुम्हारी अज्ञान की ईंटों से बना हुआ भवन होगा; उसे तुम परमात्मा का मंदिर कैसे कहोगे? वह तुमने भय से बना लिया होगा। मौत डराती होगी, इसलिए सहारा पकड़ लिया होगा। यहां जिंदगी हाथ से जाती मालूम होती होगी, इसलिए स्वर्ग की कल्पनाएं कर ली होंगी। लेकिन इन कल्पनाओं से, भय पर खड़ी हुई इन धारणाओं से, कहीं कोई मुक्त हुआ है! इससे ही तो आदमी पंगु है। इससे ही तो आदमी पक्षघात में दबा है। इसलिए बुद्ध ने ईश्वर की बात नहीं की।धम्मपद उनका विश्लेषण है। उन्होंने जो जीवन की समस्याओं की गहरी छानबीन की है, उसका विश्लेषण है। एक-एक शब्द को गौर से समझने की कोशिश करना। क्योंकि ये कोई सिद्धांत नहीं हैं जिन पर तुम श्रद्धा कर लो। ये तो निष्पत्तियां हैं, प्रयोग की। अगर तुम भी इनके साथ विचार करोगे तो ही इन्हें पकड़ पाओगे। यह आंख बंद करके स्वीकार कर लेने का सवाल नहीं है; यह तो बड़े सोच-विचार, मनन का सवाल है।
गौतम बुद्ध पारंपरिक नहीं, मौलिक हैं। गौतम बुद्ध किसी परंपरा, किसी लीक को नहीं पीटते हैं। वे ऐसा नहीं कहते हैं कि अतीत के ऋषियों ने ऐसा कहा था, इसलिए मान लो। वे ऐसा नहीं कहते हैं कि वेद में ऐसा लिखा है, इसलिए मान लो। वे ऐसा नहीं कहते हैं कि मैं कहता हूं इसलिए मान लो। वे कहते हैं, जब तक तुम न जान लो, मानना मत। उधार श्रद्धा दो कौड़ी की है। विश्वास मत करना, खोजना। अपने जीवन को खोज में लगाना, मानने में जरा भी शक्ति व्यय मत करना। अन्यथा मानने में ही फांसी लग जाएगी। मान—मानकर ही लोग भटक गए हैं।
तो बुद्ध न तो परंपरा की दुहाई देते, न वेद की। न वे कहते हैं कि हम जो कहते हैं, वह ठीक होना ही चाहिए। वे इतना ही कहते हैं, ऐसा मैंने देखा। इसे मानने की जरूरत नहीं है। इसको अगर परिकल्पना की तरह ही स्वीकार कर लो, तो काफी है।
परिकल्पना का अर्थ होता है, हाइपोथीसिस। जैसे कि मैंने तुमसे कहा कि भीतर आओ, भवन में दीया जल रहा है। तो मैं तुमसे कहता हूं कि यह मानने की जरूरत नहीं है कि भवन में दीया जल रहा है। इसको विश्वास करने की जरूरत नहीं। इस पर किसी तरह की श्रद्धा लाने की जरूरत नहीं है। तुम मेरे साथ आओ और दीए को जलता देख लो। दीया जल रहा है तो तुम मानो या न मानो, दीया जल रहा है। और दीया जल रहा है तो तुम मानते हुए आओ कि न मानते हुए आओ, दीया जलता ही रहेगा। तुम्हारे न मानने से दीया बुझेगा नहीं, तुम्हारे मानने से जलेगा नहीं।
इसलिए बुद्ध कहते हैं, तुम सिर्फ मेरा निमंत्रण स्वीकार करो। इस भवन में दीया जला है, तुम भीतर आओ। और यह भवन तुम्हारा ही है, यह तुम्हारी ही अंतरात्मा का भवन है। तुम भीतर आओ और दीए को जलता देख लो। देख लो, फिर मानना।
और खयाल रहे, जब देख ही लिया तो मानने की कोई जरूरत नहीं रह जाती है। हम जो देख लेते हैं, उसे थोड़े ही मानते हैं। हम तो जो नहीं देखते, उसी को मानते हैं। तुम पत्थर—पहाड़ को तो नहीं मानते, परमात्मा को मानते हो। तुम सूरज—चांद—तारों को तो नहीं मानते, वे तो हैं। तुम स्वर्गलोक, मोक्ष, नर्क को मानते हो। जो नहीं दिखायी पड़ता, उसको हम मानते हैं। जो दिखायी पड़ता है, उसको तो मानने की जरूरत ही नहीं रह जाती है, उसका यथार्थ तो प्रगट है।
तो बुद्ध कहते हैं, मेरी बात पर भरोसा लाने की जरूरत नहीं, इतना ही काफी है कि तुम मेरा निमंत्रण स्वीकार कर लो। इतना पर्याप्त है। इसको वैज्ञानिक कहते हैं, हाइपोथीसिस, परिकल्पना। एक वैज्ञानिक कहता है, सौ डिग्री तक पानी गर्म करने से पानी भाप बन जाता है। मानने की कोई जरूरत नहीं, चूल्हा तुम्हारे घर में है, जल उपलब्ध है, आग उपलब्ध है, चढ़ा दो चूल्हे पर जल को, परीक्षण कर लो। परीक्षण करने के लिए जो बात मानी गयी है, वह परिकल्पना। अभी स्वीकार नहीं कर ली है कि यह सत्य है, लेकिन एक आदमी कहता है, शायद सत्य हो, शायद असत्य हो, प्रयोग करके देख लें, प्रयोग ही सिद्ध करेगा—सत्य है या नहीं?
तो बुद्ध पारंपरिक नहीं हैं, मौलिक हैं। विचार की परंपरा होती है, दृष्टि की मौलिकता होती है। विचार अतीत के होते हैं, दृष्टि वर्तमान में होती है। विचार दूसरों के होते हैं, दृष्टि अपनी होती है।
तीसरी बात, गौतम बुद्ध शास्त्रीय नहीं हैं। पंडित नहीं हैं, वैज्ञानिक हैं। बुद्ध ने धर्म को पहली दफे वैज्ञानिक प्रतिष्ठा दी। बुद्ध ने धर्म को पहली दफे विज्ञान के सिंहासन पर विराजमान किया। इसके पहले तक धर्म अंधविश्वास था। बुद्ध ने उसे बड़ी गरिमा दी। बुद्ध ने कहा, अंधविश्वास की जरूरत ही नहीं है। धर्म तो जीवन का परम सत्य है। एस धम्मो सनंतनो। यह धर्म तो शाश्वत और सनातन है। तुम जब आंख खोलोगे तब इसे देख लोगे।
इसलिए बुद्ध ने यह नहीं कहा कि नरक के भय के कारण मानो, और यह भी नहीं कहा कि स्वर्ग के लोभ के कारण मानो। और इसलिए यह भी नहीं कहा कि परमात्मा सताएगा अगर न माना, और परमात्मा पुरस्कार देगा अगर माना। नहीं, ये सब व्यर्थ की बातें बुद्ध ने नहीं कहीं।
श्रद्धा विश्वास और गुरु घंटालो के मायाजाल को समझने से पहले महावीर क्या कहते पहले उसे समझते हे
*तीन तरह की मूढ़ताएं*
महावीर ने कहा है, दुनिया में तीन तरह की मूढ़ताएं हैं, भ्रांत दृष्टियां हैं। एक मूढ़ता को वे कहते हैं, 1- *लोकमूढ़ता*। 2-देवमूढ़ता
तीसरी मूढ़ता, महावीर कहते हैं--गुरुमू़ढ़ता। लोग हर किसी को गुरु बना लेते हैं! जैसे बिना गुरु बनाए रहना ठीक नहीं मालूम पड़ता--गुरु तो होना ही चाहिए! तो किसी को भी गुरु बना लेते हैं। किसी से भी कान फुंकवा लिए! यह भी नहीं सोचते कि जिससे कान फुंकवा रहे हैं उसके पास कान फूंकने योग्य भी कुछ है।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं कि हम पहले गुरु बना चुके हैं, तो आपका ध्यान करने से कोई अड़चन तो न होगी? मैंने कहा, ‘अगर तुम्हें पहले गुरु मिल चुका है तो यहां आने की कोई जरूरत नहीं।’ वे कहते हैं, ‘मिला कहां!’ वह तो गांव में जो ब्राह्मण था, उसी को बना लिया था।
अभी उसको खुद ही कुछ नहीं मिला। तो तुम सोचते तो थोड़ा कि जिसे तुम गुरु बनाने जा रहे हो, वह कम से कम तुमसे एक कदम तो आगे हो! लेकिन गुरु होना चाहिए!.बिना गुरु के कैसे रहें! तो किसी को भी गुरु बना लेते हो! जो मिल गया वही गुरु हो गया। पिता के गुरु थे तो वही तुम्हारे गुरु हो गये, पति के गुरु थे तो वही पत्नी के गुरु हो गये। बिना इस बात का विचार किए कि यह बड़ी महिमापूर्ण बात है, यह जीवन की बड़ी चरम खोज है--गुरु को खोज लेना!
गुरु को खोज लेने का अर्थ, एक ऐसे हृदय को खोज लेना है जिसके साथ तुम धड़क सको और उस लंबी अनंत की यात्रा पर जा सको।
तो महावीर कहते हैं, ये तीन मूढ़ताएं हैं और इन मूढ़ताओं के कारण व्यक्ति सत्य की तरफ नहीं जा पाता। या तो भीड़ को मानता है, या गुरु घंटाल को पूजता रहता है। कितने गुरु घंटाल हैं! हर जगह गुरु घंटाल खड़े हैं। हर कहीं भी झाड़ के नीचे रख दो गुरु घंटाल, थोड़ी देर में तुम पाओगे, कोई आकर पूजा कर रहा है! तुम करके देखो! तुम सिर्फ बैठे रहो दूर छिपे हुए, देखते रहो। तुमने ही गुरु घंटाल रख दिया है और सिंदूर पोत दिया है; थोड़ी देर में कोई न कोई आकर पूजा करेगा। बड़ी मूढ़ता है।
मैंने सुना है, जिस आदमी ने अमरीका में पहला बैंक खोला, उससे बाद में जब पूछा गया, कि तुमने यह बैंक खोला कैसे? उसने कहा कि कोई काम-धाम न था मेरे पास, कुछ और न सूझा मेरे लिए तो मैंने एक तख्ती लटका दी अपने घर के सामने, ‘बैंक’ उस पर लिख दिया। थोड़ी देर में देखा कि एक आदमी आकर ढाई सौ डालर जमा करवा गया। तो मैं खुद भी चमत्कृत हुआ। यह मैंने सोचा न था। दूसरे दिन देखा कि एक दूसरा आदमी आया और वह भी कोई सौ डालर जमा करवा गया। फिर तो मेरी इतनी हिम्मत बढ़ गई कि मेरे पास जो पच्चीस डालर थे वे भी मैंने जमा कर दिये। बैंक चल पड़ा!
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रास्ता तो लंबा है। लेकिन *इतना भी लंबा नहीं कि पूरा न हो सके।* मंजिल कठिन तो है, *मगर असंभव नहीं।*
साधना तो करनी होगी, साध्य है। दुरूह है, दुर्गम है, *लेकिन असाध्य नहीं!* फिर तुम जैसा चल आए हो, जितना चल आए हो, उससे आशा बंधती है कि आगे भी रास्ते ठीक मिलते जाएंगे।
*मुझ पर मत छोड़ो! मुझ पर छोड़ने में खतरा है। छोड़ा मुझ पर कि तुम बस बैठ जाओगे।*
यही तो इस पूरे देश का दुर्भाग्य है। इसने छोड़ दिया सब, मान लिया कि भगवान की इच्छा होगी तो सब हो जाएगा। भगवान की इच्छा से निश्चित सब हो सकता है, मगर पहले तुम्हें अपनी पूरी इच्छा को श्रम में संलग्न कर देना होगा। तुम जब अपनी इच्छा को पूरा का पूरा श्रम में संलग्न कर देते हो, *उसी क्षण भगवान की ऊर्जा तुम्हें मिलनी शुरू होती है, उसके पहले नहीं।*
तुम अपना पूरा श्रम ध्यान में लगा दो। मैं तो साथ खड़ा ही हूं! और परमात्मा भी तुम्हारे साथ खड़ा है। सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ है। जब भी कोई व्यक्ति ध्यान की दिशा में उतरता है, सारा अस्तित्व आनंदमग्न हो उसे सहयोग देता है, क्योंकि कोई भूला-भटका घर आ रहा है। कोई दूर निकल गया वापस लौट रहा है। कोई बीज फूट रहा है, अंकुरित हो रहा है, पल्लवित हो रहा है। आकाश उसे छाया देता है, सूरज उसे गर्मी देता है, बादल उसे पानी देते हैं। भूमि उसे प्राण देती है। यह सारा अस्तित्व उसके लिए सहयोगी हो जाता है।
हां, अस्तित्व के विपरीत चलना हो तो तुम अकेले रह जाते हो। अहंकार की यात्रा अकेले की यात्रा है। *ध्यान की यात्रा में सारा अस्तित्व सहयोगी है।* मगर अस्तित्व पर ही मत छोड़ देना। तुम्हें तो श्रम करना ही है। अस्तित्व सहयोग देगा।
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श्रद्धा, विश्वास और गुरु घंटालो का मायाजाल को समझने से पहले ओशो क्या कहते पहले उसे समझते हे .*'गुरु बनाना एक मानसिक ग़ुलामी है' .....और किसी का गुरु बनने की चाहत एक बड़ा पाखंड व धूर्तता*
मैं विद्रोही आत्माएं चाहता हूं।
*एक विद्रोही को गुरु की कोई आवश्यकता नहीं है।*
यदि उसे गुरु की आवश्यकता है तो वह विद्रोही नहीं है, *एक विद्रोही स्वयं में एक गुरु है।*विद्रोहता ही उसका धर्म है, और उसके लिए अन्य कोई धर्म नहीं है।गुरु का अनुसरण करना, और अपने को विद्रोही समझना, यह अपने में विरोधाभास है।*एक विद्रोही केवल मित्र हो सकता है।*
एक विद्रोही प्रत्येक उस जगह से सीख सकता है जो कि उपलब्ध है*
*पर अनुयायी नहीं बन सकता।*
*वह अंधविश्वासी नहीं बन सकता।*
एक विद्रोही एक गुरु को वहन नहीं कर सकता।
उसने अपनी व्यक्तिगतता चुनी है, *अपनी स्वतंत्रता*, वह किसी भी गुरु के द्वारा गुलाम बनने नहीं जा रहा है।
इसलिए मैं तुम से *इस बात पर जोर दे रहा हूं कि मैं गुरु नहीं हूं, क्योकिं मैं किसी भी व्यक्ति को गुलाम नहीं बनाना चाहता हूं।*
यह एक मानसिक गुलामी है : जो भी मैं कहता हूं तुम विश्वास कर लेते हो, जो भी मैं करता हूं तुम विश्वास कर लेते हो, और अभी भी तुम समझते हो कि तुम विद्रोही हो ?
*विद्रोही होने के लिए साहस चाहिए।*
*"मैं तुम्हारा मित्र हूँ, गुरु नही। क्योकि गुरु के नाम पर बहुत पाखण्ड हो गया है ! मैं तुम्हें चरणों में नहीं, हृदय में बैठाना चाहता हूँ ! मैं तुम से बड़ा नहीं, जो तुम हो, वही मैं हूँ !* मैं तुम्हारे अंदर भी आनन्द देखना चाहता हूँ। जो मुझे मिल रहा है, मैं तुम्हें भी वह अनुभूति देना चाहता हूँ !
मैं कुछ भी शेष नही रखूंगा। जो मुझे मिला वह सब कुछ बांटना चाहता हूँ !
ऐसा नहीं कि मैं तुम्हारे ऊपर कोई अहसान कर रहा हूं! *मैं स्वयं आजाद हूँ और तुम्हें भी आज़ादी देता हूँ ! तुम्हें वह स्वतंत्रता देना चाहता जो किसी धर्म ने तुम्हें नहीं दी है। तुम चाहो तो धन्यवाद भी मत देना।*
*तुम मेरे मन्दिर मत बनाना ! मेरा कोई धर्म मत बनाना! मेरे प्रवचनों को शास्त्र मत बनाना !* तुम सब अपने-अपने गुरु बन जाना! *तुम्हारा गुरु बनने में मेरा कोई रस नही है !*
लेकिन तुम्हारी गुरु मानने की यह
आदत जन्मों से जुड़ी हुई है!
हम सब एक ही माला के मोती हैं।
*जो तुम हो वही मैं हूं, और जो मैं हूँ वही तुम हो...*
गुरुओं के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है। योग वसिष्ठ कहते हैं कि दीक्षा देना और ऐसे अन्य कार्य निरर्थक हैं। शिष्य का जागरण सही समझ और जागरूकता में है। वह अकेला ही सबसे प्राथमिक जिम्मेदार तथ्य है। ये अनिवार्यताएँ विच्छेदित परंपरा का मूल हैं।यह कहना मुश्किल है. दोनों दृष्टिकोण लंबे समय से अस्तित्व में रहे होंगे। एक परंपरा में, गुरु को एक मित्र के रूप में लिया जाता है, एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसे शिष्य प्यार करता है; इसमें गुरु बिल्कुल भी सत्तावादी नहीं है। दूसरी परंपरा शोषण करती है. यह अधिकार, अनुयायी चाहता है।
श्रद्धा, विश्वास और गुरु घंटालो का मायाजाल को समझते हे .--गुरु होना चाहिए यह बात आपने किसके मुख से ज्यादा सुनी गुरुओके मुख से ही। बात साफ हे वह अपना प्रमोशन कर रहे हे। जितना बड़ा व्यापारी गुरु होगा उतना ही ज्यादा ढोल पिटेगा - गुरु होना चाहिये। मुक्ति कोई गुरु नहीं दे सकता, मुक्ति स्वयं ही प्राप्त करनी होती हे। आजकल के गुरु घंटाल करते क्या है अपना व्यापार चलाने के लिए कई तरीके से लोगो को मुर्ख बनाते हे. इनका जाल कई साल पुराना और लम्बा हे। और तुम एक आसान शिकार हो.कोई गुटिका बेच रहा हे ,कोई माला बेच रहा हे ,कोई यन्त्र बेच रहा हे ,कोई मंत्र बेच रहा हे, कोई कवच बेच रहा हे ,कोई साधना सामग्री बेच रहा हे,कोई सिद्धाश्रम को बेच रहा हे , शक्ति ट्रांसफर दे रहा हे। कोई दुःख दूर करने के नाम पे पैसे ले रहा।कोई दीक्षाओ के नाम पे पैसे लूट रहे हे ,तो कोई परचा बनाके। सभी अपनी दुकान चला रहे हे .ये वो लोग हैं जो तुम्हारी भावनाओं- वासना को भड़काने का काम करते ताकि उनका व्यापर -धर्म का धंधा चल सके।इनके पास शक्तिया हे पर क्या शक्तिया मोक्ष दे सकती हे-----. मरने के बाद इनको मुक्ति मिलेगी----, उनका इन गुरु घंटालो को ही पता नहीं तो तुम्हे क्या खाख मुक्ति देंगे। ज्यादातर गुरु घंटाल इतरयोनी की शक्तियो की सिद्धि कर लोगो को चुना लगा रहे हे.यह अपनी शक्तियो के माध्यमसे अपना खुदका ही दुख और अपनी धन की कमी को दूर नहीं कर सकते वरना इन्हे तुम्हारे पास आनेकी जरुरत ही क्या थी। गौर से देखो शक्तियो होने के बाद भी इनका मोह ,धन की लालशा ,घटियापन ,वासनाये,दुःख सामाप्त नहीं हुई। सिद्धाश्रम में जाने की इच्छा भी एक वासना ही हे और वासना नरक का द्वार हे. आजकल के गुरु घंटाल अपना व्यापार बढ़ाने के लिए आप के पास जान बुजके नरक के द्वार का निर्माण कर रहे हे। अपनी महेनत की कमाई अपने परिवार के लिए खर्चे यही समझदारी हे।पैसे लेने वाले गुरु घंटालो से सावधान रहे। किसी भी गुरु से गुरु दीक्षा लेने से पहले उसका बराबर ३ साल तक टेस्ट करे उसके बाद ही कदम उठाये।
महारहस्य----------गुरु घंटालो से कैसे बचे.------------जो तुम्हारी वासनाये भड़काने का काम करे समजो वो गुरु घंटाल हे। जब तक तुम न जान लो, मानना मत। उधार श्रद्धा दो कौड़ी की है। विश्वास मत करना, खोजना। अपने जीवन को खोज में लगाना, मानने में जरा भी शक्ति व्यय मत करना। अन्यथा मानने में ही फांसी लग जाएगी। मान—मानकर ही लोग भटक गए हैं।
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